स्वामी विवेकानंद युवाओं के गुरु थे और रहेंगे युवाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण उनके समकालीन विचारकों से बिल्कुल भिन्न था और उसमें अध्यात्म और विज्ञान का अनूठा मिश्रण था। इसीलिए वो आज भी न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में प्रासंगिक है। पूरा विश्व उनका जन्मदिन यानि 12 जनवरी विश्व युवा दिवस के रूप में मनाता है। परंतु दुख की बात है कि हम इस दिन केवल उनकी याद का उत्सव मनाते हैं। उनके अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम, विकास की दिशा आदि सिद्धांत कहीं भी दिखाई नहीं देते। उनके द्वारा युवाओं के लिए देखा गया सपना आज धूमिल होता जा रहा है। हाल युवा वर्ग के भी ठीक नहीं है। सिर्फ धन शक्ति को ही विकास और सफलता का पर्याय समझने वाली युवाशक्ति पूरी तरह दिशाहीन रास्ते पर बढ़ती जा रही है पर इसके लिए युवाओं को दोष नहीं दिया जा सकता। राष्ट्र हित में इसके कारण तलाशने होंगे।
कुछ तथ्यों पर निगाह डालें-
इस देश की कुल जनसंख्या का 70 प्रतिशत युवा (13 से 35 वर्ष की उम्र) है।
देश में होने वाली छोटी-बड़ी आपराधिक घटनाओं में लिप्त लोगों में लगभग 75 प्रतिशत युवा होते हैं।
लगभग हर पांचवा युवा अनिश्चित भविष्य से उपजी असुरक्षा से गंभीर रूप से चिंतित और परेशान हैं।
युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य कमजोर होता जा रहा है।
लालच, क्रोध, हिंसा, नशा, आत्महत्या आदि में बढ़ोत्तरी इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।
लगभग हर तीसरा शहरी युवा अस्वस्थ है, विशेषकर पेट, श्वास, सर या कमजोर प्रतिरोधक क्षमता की परेशानी से ग्रसित है। कुछ गंभीर रोग जो सामान्यतः प्रौढ़ों अथवा बुजुर्गों में होते ये अब युवाओं में भी बढ़ते जा रहे हैं। जैसे - मानसिक समस्याएँ. बी.पी. नेत्र रोग, हड्डियों के रोग आदि ।
युवाओं में परिवार के प्रति प्रेम और जिम्मेदारी का अहसास कम हो रहा है।
देश, धर्म व संस्कृति से जुड़ाव दिन ब दिन कम होता जा रहा है परंपराओं में रुचि कम हो रही है और पश्चिम का अंधानुकरण बढ़ता जा रहा है
अधिकतर युवाओं का मन अध्ययन करने, पढ़ने,लिखने या चिंतन करने की अपेक्षा घूमने-फिरने तथा मौज-मस्ती में अधिक लगता है।
छात्र आंदोलन भी कमजोर एवं दिशाहीन होते जा रहे हैं।
"तुम्हारे मस्तिष्क में ठूसी और जीवन भर अनपची रह जाने वाली और त्रासदायी जानकारी का संग्रह शिक्षा नहीं है। जीवन का निर्माण करें, मनुष्य को बलवान बनाएं, उसके चरित्र का विकास करें, ऐसे पठन की आवश्यकता है।"
"मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो वहीं इसका प्रयोग करो- उससे अतिशीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।" - स्वामी विवेकानंद जी
इन समस्याओं के लिए जिम्मेदार कौन है? निश्चित रूप से युवा वर्ग नहीं है। इसकी प्रथम जिम्मेवारी आती है भारतीय शासन व्यवस्था और राजनैतिक दलों पर। आश्चर्य की बात है कि जिस देश की 70 प्रतिशत जनता युवा हो उस देश में (2002 से 2004 तक यानि दो वर्षों को छोड़कर) कोई राष्ट्रीय युवा नीति या कमीशन अस्तित्व में है ही नहीं। जो संगठन सरकार द्वारा बनाए भी गए हैं। उनका कार्य क्षेत्र तथा बजट इतना कम है कि वो इतने बड़े वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते। वैसे भी इन संगठनों के एजेंडे में युवाओं के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास का कोई फार्मूला नहीं है। कमजोर दूर दृष्टि और लचर गवर्नेस के चलते भारत अपने ही अंदर अनेक देशों में बंट गया। अमीरों का भारत और गरीबों का भारत, शहरी भारत और छोटे हर या ग्रामीण भारत और उपेक्षित भारत जिसमें सुदूर प्रदेश और जनजातीय इलाके आते है। इस सामाजिक विभेद से उपजी कुठा का सबसे बुरा असर युवाओं पर ही पड़ा। राजनैतिक दलों के लिए युवा वर्ग केवल वोट बैंक से अधिक
कुछ नहीं रहे जिसके चलते छात्र आंदोलन अपनी भूमिका और दिशा से भटक गए। युवा वर्ग के भटकाव का दूसरा बड़ा कारण देश की शिक्षण व्यवस्था है जिसमें छात्र उत्पाद से अधिक कुछ नहीं रह गया है। शिक्षण संस्थानों में उपजा भौतिकवाद तथा स्कूल प्रसाशन, शिक्षकों, छात्रों व छात्रों के परिवारों के मध्य उमरे अविश्वास ने शिक्षण को दिशाहीन कर दिया जिसका सीधा असर युवाओं पर पड़ रहा है। ऐसे बुद्धिजीवी भी कम कुसूरवार नहीं है जिन्होंने युवाओं में छदम प्रगतिवाद को जागृत किया एवं उन्हें पूर्णतया भौतिकवादी बनाने का कार्य किया। इस वर्ग ने युवाओं को धर्म और विज्ञान में सामंजस्य स्थापित नहीं करने दिया। इस वर्ग ने उन्हें भारतीय समाज की कुरीतियों के विरुद्ध खड़ा करने की बजाए सभी भारतीय परंपराओं के विरुद्ध खड़ा करना चाहा जिससे उनमें चरित्र देश, समाज और परिवारों के प्रति श्रद्धा कम हो गई और उसका स्थान लिया हिंसा, लालच और उन्मुक्त वातावरण ने। प्रगतिशीलता के नाम पर इस वर्ग ने युवाओं को पाश्चात्य कुरीतियों की ओर धकेल दिया और इसे नाम दिया–विज्ञानवाद जिसमें विज्ञान तो कहीं था ही नहीं बस एक अलग किस्म का अंधानुकरण था जिसका केंद्र पश्चिमी फलसफा था। इस सोच के युवाओं में सबसे अधिक अवसाद और भटकाव फैला। पर युवाओं के भटकाव की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आती है। परिवारों तथा परवरिश पर। विडम्बना है कि स्वयं भौतिकवाद, लालच, अति–महत्वाकांक्षा तथा कुपरंपराओं जकड़े माता--पिता अपने बच्चों से उत्तम चरित्र की अपेक्षा करते हैं जिनके घरों में स्वयं सु–चिंतन न होता हो या पढ़ाई--लिखाई का माहौल न वो बच्चों की पढ़ाई को लेकर बच्चों के सामने ही शिक्षकों से झगड़ते दिखाई पड़ते है।अपना आराम पाने और अपने समय का कुछ अन्य उपयोग करने वाले माता-पिता बच्चों की हर ज़िद की पूर्ति करने या उसे लालच देने का कार्य करते करते कब परवरिश से दूर
होते जाते हैं और बच्चों के वित्तपोषक (Financer) होते जाते हैं। उन्हें स्वयं भी पता नहीं चलता। इस तरीके से पाले गए बच्चों से उनकी युवावस्था में उनसे निःस्वार्थ प्रेम की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। ये बच्चे ही ऐसे युवा बनते हैं जिनमें असुरक्षा और भावनात्मक खालीपन होता है। अपने बुजुर्गों से दूर रहने की चाहत रखने वाले माता-पिता बच्चों के अंदर अपने लिए कम होते समर्पण भाव पर भला कैसे टिप्पणी कर सकते हैं। बच्चे और युवा सदैव समाज, परिवेश और परवरिश से सीखता है। धर्म और सुपरंपराओं से लैस युवा ही स्वयं परिवारों समाज व राष्ट्र के लिए कुछ कर सकता है। ये ही उसका आत्मविश्वास और आत्मबल बनते हैं। अध्यात्म वैज्ञानिक एवं उद्देश्यपरक शिक्षण, सुपरंपराएं अच्छी परवरिश और सुशासन ही एक मजबूत युवा और उत्तम राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। ये ही स्वामी विवेकानंद की शिक्षा है। - प्रोफ़ेसर पवन सिन्हा ‘गुरूजी’
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