शब्द योग, शायद आदतन भारतीय समाज में सबसे ज्यादा बोले जाने वाला शब्द होगा। परंतु हममें से अधिकतर लोगों को योग का अर्थ नहीं मालूम सामान्यतः योग को हम जिस रूप में इस्तेमाल करते है वह मूलत व्यायाम है। वह योग नहीं है। केवल श्वास-प्रश्वास करना, केवल कुछ आसन करना या कुछ विशिष्ट सूक्ष्म व्यायाम कर लेना यह योग नहीं है. यह तो योग का एक खंड मात्र है। दुख तो इस बात का और भी अधिक है कि लोग शब्द योग को ‘योगा’ बनाते चले जा रहे हैं। वर्तमान समय में लोगों के लिए यह एक फैशन और स्टेटस सिंबल बन गया। जिसे देखो वही योगा-योगा करके आसन करने बैठ जाता है। जिस तरह से इस पवित्र और गंभीर विषय का समाज में प्रयोग हो रहा है, वह प्रयोग कम और स्टेटस सिंबल ज्यादा प्रतीत होता है। यह वास्तव में हमारे लिए काफी दुख और परेशानी की बात है, इस शब्द के सही रूप को जानने का प्रयास करते हैं।
मोटे शब्दों में योग का अर्थ है स्थूलता से सूक्ष्मता की और जाना अर्थात् बहिर्मुखी से अंतर्मुखी होना। योग का अर्थ यह भी है कि हम अपनी इंद्रियों को अपने अहंकार, लोभ और कुवृत्तियों को रोक सकें, उनका निरोध कर सके। इसमें तम की मात्रा कम होती जाए और सत्य का प्रकाश बढ़ता चला जाए योग का उद्देश्य केवल शारीरिक स्वास्थ्य नहीं है बल्कि शारीरिक और मानसिक दोनों स्वास्थ्य का मतलब योग योग न तो वैराग्य है, योग न तो व्यायाम है, और न ही मात्र जप अथवा ध्यान है बल्कि योग इन तीनों का सम्मिलित स्वरूप है क्योंकि योग का उद्देश्य केवल शरीर का उत्थान नहीं है बल्कि योग का उद्देश्य ‘आत्मा का उत्थान है’ आत्मा का परमात्मा से - मिलन है आत्मा की परमावस्था ही योग का साध्य है और व्यायाम, वैराग्य, अभ्यास, ध्यान, जप इत्यादि इसके साधन है। योग का शाब्दिक अर्थ है मिलना। इसे भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में ईश्वर और जीव का मिलन एवं आत्मा और परमात्मा का मिलन के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिसके लिए समस्त चित्तवृत्तियों को एकाग्र करना होता है। श्रीकृष्ण के अनुसार 'योग कर्मसु कौशलम्' अर्थात् कर्म की कुशलता ही योग है।
योग- शास्त्र की तात्विक विवेचना सर्वप्रथम ऋषि पतंजलि ने की थी उसके उपरांत ऋषि व्यास ने योगसूत्र पर भाष्य लिखा तदोपरांत योग सूत्र पर सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ व्यास्य, भाष्य लिखा गया जिसकी रचना आचार्य व्यास देव ने की आगे जाकर आचार्य वाचस्पति, विज्ञान भिक्षु राघवानंद तथा सदाशिवेद सरस्वती कृत योग सुधाकर आदि विद्वानों ने पातंजलि योग सूत्र पर विषद् विवेचना लिखी है। योग का वर्णन गीता में भी है। सांख्य दर्शन में योग की एक भिन्न रुप में एक विशुद्ध विवेचना है।
योग के लगभग 50 से अधिक स्वरूप हैं जिसमें से प्रमुख हैं- राजयोग, हठयोग, जप योग, भक्ति योग, प्राण योग तथा कुंडलिनी योग इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के शब्दों के आगे योग लगाया जाता है जैसे गृहस्थ योग, मानस योग, क्रिया योग तथा विज्ञान योग आदि किसी भी शब्द के आगे योग लगाने का अर्थ है उस नियत कार्य में शुद्धि के साथ कुशलता की प्राप्ति करना योग का अर्थ फिलोसाफी के रूप में भी लिया जाता है यानि किसी भी लौकिक अथवा स्थूल वस्तु के दर्शन का योग श्रीमदभागवत गीता की यदि बात करें तो उसमें प्रमुखतः राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, सांख्ययोग, ज्ञानकर्म, सन्यास आदि योगों का वृहद वर्णन किया गया है। परंतु योग पर जो सबसे अधिक पौराणिक कार्य है वह ऋषि पातंजलि का ही माना जाता है जिन्होंने योग को कहा योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात् चित्त और वृत्तियों को नियंत्रित कर लेना ही योग है। यहाँ पर भी हम लोग कभी-कभी गलत रूप में इस चीज को समझते है हम उन्हें हर चित्त और वृत्ति को रोकने से समझते है जबकि 'चिवृत्ति निरोध' का अर्थ है कि तामसिक इच्छाओं को रोकते हुए समाप्त करते बा हुए सतो गुण की ओर बढ़ना है और जब ने हम सत्य को पूरी तरह प्राप्त कर लेते हैं तभी हमारी स्थिति बनती है एक योगी की।
यानि योगी वो नहीं है जो शारीरिक द व्यायाम में पारंगत होता है बल्कि योगी यह है जो अपनी किसी भी विद्या में पारंगत होता है योगी यह है जो अपने शरीर, चित्तवृत्तियों का इस प्रकार से प्रबंधन करता है कि वह अपने तम से सत्य की ओर बढ़ सके और सात्विक गुणों को कुशलता पूर्वक ग्रहण कर सके, और परमात्मा से न मिलन कर सके यह है एक पूर्ण योगी की परिभाषा। यदि में कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से अभ्यास के द्वारा व्यायाम में पारंगत तो हो जाता है।
परंतु मानसिक या चित्तजनक वासनाओं पर उसका नियंत्रण नहीं है तो उस व्यक्ति को योगी नहीं कहा जा सकता। योगी बनने की प्रथम शर्त शारीरिक सक्षमता या स्वास्थ्य न होकर मानसिक सक्षमता या स्वास्थ्य है योगी के लिए अपनी समस्त वासनाओं पर नियंत्रण करना आवश्यक है।
यदि अब तक की विवेचना को ध्यान से समझें तो इससे यह स्पष्ट होता है कि
योग का अर्थ शरीर का स्वास्थ्य प्राप्त करने से नहीं है।
प्रयोग का उद्देश्य केवल शारीरिक स्वास्थ्य नहीं है।
योग का अर्थ तन और मन की समस्त शक्तियों का चित्त और वृत्तियों का इस प्रकार से एकाकार होना है कि हम अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करते हुए अपनी इंद्रियों को भरने से रोक हुए इस प्रकार कुशलता पूर्वक कर्म करें जिससे हम अपने कार्य में, कर्म में कुशलता प्राप्त करें और साथ ही साथ हम परमात्मा से अपनी आत्मा का मिलन करा सकें।
महाऋषि पातजलि ने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए योग को आठ भागों में बाँटा था इसको हम अष्टांग योग कहते है। यह योगत्व की प्राप्ति के मूलतः आठ चरण है। मेरे हिसाब से यह वो आठ सोपान है जिन पर चढ़ते-चढ़ते हम समाधि की स्थिति को प्राप्त होकर ईश्वर से मिलन करते हैं। यह आठ सोपान है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधि ।
अब हम इसमें से प्रत्येक सोपान को गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। इन आठ पदों को हम मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित करते हैं- बहिरंग योग एवं अंतरंग योग। यम, नियम, आसन, प्राणायाम प प्रत्याहार- यह बहिरंग योग के अंग है तथा धारणा, ध्यान और समाधि अंतरंग योग के अंग है यानि सबसे पहले हम अपने स्थूल शारीर को और मन विचारों को इस प्रकार से पवित्र और शुद्ध करना प्रारंभ करें और धीरे-धीरे अभ्यास से अपने अंदर की ओर की गति प्राप्त करें जिससे हम सत्गुण को प्राप्त कर सकें क्योंकि सत्गुण को प्राप्त करने के उपरांत ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।
इस प्रक्रिया का प्रथम सोपान है यम, यम के लिए श्लोक है- ‘यमयन्ति निवर्तयन्तीति यमाः’ । इस व्युत्पत्ति के अनुसार वह कर्म जो हमें अवांछनीय कार्यों से मुक्त कराते हैं यम कहलाते हैं। यम पाँच है अहिंसा, सत, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह।
अहिंसा का अर्थ है किसी भी प्राणी से चाहे वह मानव हो, वनस्पति हो, पशु-पक्षी हो उससे वाणी, कर्म यहाँ तक कि चिंतन से भी हम हिंसात्मक व्यवहार न करें अहिंसा के बिना मोक्ष की प्राप्ति असंभव है इसीलिए यम में सबसे अधिक महत्व अहिंसा को ही दिया गया है।
सत का अर्थ है मन, वचन एवं कर्म की एकरूपता जो व्यक्ति 'मनसा वाचा कर्मणा एक सा व्यवहार करता है शास्त्र के अनुसार वही सत्य है अतः योग का दूसरा सोपान है 'सत्य'।
यम का तीसरा सोपान है अस्तेय जिसका का अर्थ है चोरी न करना। यहाँ पर चोरी शब्द का अर्थ बहुत गहरे और वृहद रूप में लेना चाहिए। किसी भी ऐसी चीज को जो हमारी नहीं है, दूसरे व्यक्ति की है और उसे हम अपना बना लेते हैं। यह चोरी है। यह कोई शब्द भी हो सकता है, यह कोई कलाकृति भी हो सकती है, यह कोई साहित्य भी हो सकता है और यह कोई धातु अथवा द्रव्य अथवा धन इत्यादि भी हो सकता है। रिश्वत भी चोरी का ही एक रूप है।
यम का चौथा स्वरूप है ब्रह्मचर्य। यह एक ऐसा शब्द है जिसे हम अभी सही रूप में नहीं समझते हैं ब्रह्मचर्य मात्र 'काम' (सेक्स) से जोड़कर ही देखा जाता है। जबकि ब्रह्मचर्य का अर्थ है इंद्रियों का नियंत्रण जिससे हमारे अंदर संयम विकसित हो मन पर पूर्ण नियंत्रण भी ब्रह्मचर्य की विषय वस्तु है ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल शारीरिक काम से दूर रहना ही नहीं है। यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से भोग से तो दूर है परंतु मानसिक रूप से वह भोग से दूर नहीं है, मन में कामवासना प्रज्जवलित है, मन में कामाग्नि प्रज्जवलित है, दूसरी स्त्रियों / पुरुषों पर नज़र है या उसके स्वप्न में भी वासनात्मक विचार रहते हैं तो ऐसा व्यक्ति ब्रह्मचारी नहीं कहलाया जा सकता। ब्रह्मचर्य का अर्थ केवल काम से मुक्ति ही नहीं है बल्कि भोग से मुक्ति है जिसमें दिनचर्या व भोजन भी आता है। यानि ऐसी दिनचर्या व भोजन जो उत्तेजक विचारों और मानसिक प्रवृत्ति को बढ़ाने वाला हो, उसका प्रयोग भी ब्रह्मचर्य में निषेध होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है वीर्य की हानि न की जाए क्योंकि ईश्वर ने वीर्य को हमारे शरीर में ऊर्जा बिंदु के रूप में स्थापित किया है। यही वह ऊर्जा बिंदु है जिससे हम अतुल बल प्राप्त कर सकते हैं जो हमारी चित्त और वृत्तियों को सात्विक बना सके तथा हम कोई भी किए जाने वाले कर्म में कुशलता प्राप्त कर सकें। वीर्य का अनावश्यक किया जाने वाला क्षय ब्रह्मचर्य नहीं है और जो ब्रह्मचारी नहीं होता वह अपने लक्ष्यों को प्राप्त नहीं कर पाता और अपने कर्म में कुशलता प्राप्त नहीं कर पाता। विद्यार्थियों को विशेषकर इस बात को मानना ही चाहिए क्योंकि अनावश्यक वीर्य की हानि उनके मस्तिष्क की एकाग्रता को इतना कमजोर कर देती है कि वह सही से कार्य नहीं कर सकता और उसकी स्मरण शक्ति पर भी बहुत बुरा असर पड़ता है। आने वाले कुविचार उसके मन और शरीर दोनों को कमज़ोर करते चले जाते हैं। वह भटकता जाता है इसीलिए जो मूल आश्रम व्यवस्था थी उसमें विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य अनिवार्य होता था।
ब्रह्मचर्य पर एक बहुत बड़ा विवाद है। आधुनिक वैज्ञानिक व मनोचिकित्सक कहते हैं कि ब्रह्मचर्य के लिए हमें अपने काम इच्छा का दमन करना पड़ता है। उससे हमारे शरीर और मन दोनों में विकार उत्पन्न होते हैं। इसलिए ब्रह्मचर्य का सिद्धांत व्यवहारिक नहीं है जबकि ऐसा नहीं है। शास्त्रों में हर बात को गहन शोध और अध्ययन के बाद ही लिखा गया है। ब्रह्मचर्य यम का चौथा चरण है। इससे पहले अहिंसा, सत्य और अस्तेय इन चीज़ों को अपनी चित-वृति में शामिल करना अनिवार्य होता है। अर्थात् ब्रह्मचर्य का अर्थ काम का दमन नहीं है, या ब्रह्मचर्य का अर्थ जबरदस्ती किसी इच्छा को मारना नहीं है बल्कि ब्रह्मचर्य का अर्थ है उस इच्छा की उत्पत्ति स्वतः ही न हो। उदाहरण के तौर पर यदि हम कोई विशेष सुंदर सी कार देखते हैं और हमारे मन में अचानक उसे खरीदने का विचार आता है या ऐसी कल्पनाएँ जन्म लेती हैं कि काश मेरे पास भी यह गाड़ी होती परंतु साधन न होने के कारण हम अपनी उस इच्छा का बलपूर्वक दमन करते हैं। अपनी भावनाओं का दमन करते हैं तो यह हमें मानसिक उद्वेलना या परेशानी दे सकती है जिससे आगे जाकर हमें कुछ शारीरिक कष्ट भी होता है और हमारा वात और पित्त भी कुपित हो सकता हैं परंतु यदि हम योगी हैं, सत्संगी हैं या हमारा आचरण इस प्रकार का है कि किसी की भौतिक वस्तु से हम प्रभावित न हो और हमारे मन में त्रिष्णा व इच्छा का जन्म ही ना हो तो हमें दमन कहाँ करना पड़ेगा बल्कि इससे तो हमारा स्वास्थ्य और भी अच्छा होगा। यही भारतीय और पाश्चात्य दर्शन का अंतर है। योग दर्शन इच्छा के दमन की बात तो करता ही नहीं है बल्कि इच्छा उत्पन्न ही ना हो ऐसे साधन सिखाता है। क्रमशः.....
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