"असफलताओं की चिंता मत करो, वे बिल्कुल स्वाभाविक हैं। असफलताओं के बिना जीवन क्या होता है? जीवन में यदि संघर्ष न रहे तो जीवित रहना ही व्यर्थ है, इसी में जीवन का असली काव्य है। इसीलिए जीवन में संघर्ष और त्रुटियों की परवाह मत करो और अपनी असफलताओं पर ध्यान दो। ये छोटी-छोटी फिसलने हैं जिन्हें आदर्श समझकर और अपने आदर्श को सामने रखकर हज़ार बार आगे बढ़ने का प्रयत्न करो। यदि तुम हज़ार बार भी असफल होते हो, तो उठो एक बार फिर प्रयत्न करो।"
-स्वामी विवेकानंद
इस संसार में हर व्यक्ति अपने आप में विलक्षण है और प्रतिभावान भी है जिसकी रचना उस एक ईश्वर द्वारा ही की गई है परंतु हर व्यक्ति विलक्षण व असाधारण नहीं है, ऐसा क्यों? इसके लिए ज़रूरी है हर व्यक्ति को व्यक्तिगत स्तर पर सार्थक प्रयास करके अपनी ऊर्जा बढ़ाने की। यहाँ सवाल यह उठता है कि यह उत्पादकता क्या है? इसे कैसे समझा जा सकता है जिससे कि सार्थक प्रयास द्वारा बढ़ाकर व्यक्ति साधारण से विलक्षण बन सके।
उत्पादकता के कई पहलू हैं जिसमें 'सृजनात्मकता' सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। चाहे वह परिवार हो, कार्य क्षेत्र हो, जिंदगी की महत्वपूर्ण घटना हो या स्वयं व्यक्ति विशेष हो, सृजनात्मकता हर जगह काम आती है। दूसरा जरूरी पहलू है 'क्षमता'। आज की जिंदगी में हर व्यक्ति की बहुत सीमित क्षमता है। इसीलिए व्यक्ति अपनी क्षमताओं को योग्य नहीं बना पा रहा है इससे उसकी प्रतिभा में भी निखार नहीं आ पा रहा है। शास्त्रों में कहा गया है- “धन के पीछे ना भागो, अपनी क्षमताओं को निखारो और मजबूत करो।" अगर आपके पास योग्यता, कौशल और क्षमता है तब पैसा अपने आप आपको ढूंढ लेगा। इसीलिए व्यक्ति को धन के लिए क्षमता निर्माण नहीं करके अपनी योग्यता, गुणों और कौशल को बढ़ाना आवश्यक है।
उत्पादक होने की राह में तीसरी महत्वपूर्ण चीज है 'प्रतिबद्धता'। जिस क्षमता का निर्माण लोग कर रहे हैं और वहाँ से जो निपुणता एवं प्रतिभा हासिल करते हैं अपनी सृजनात्मकता के इस्तेमाल से वह कितना प्रतिबद्धता में परिवर्तित हो रहा है? आजकल चाहे वह परिवार हो, संगठन हो, कक्षाएँ हों, समाज हो या फिर कुटुंब, सब जगह प्रतिबद्धता निष्ठा एवं भागीदारी की कमी है। अगर किसी जगह पर रचनात्मकता, प्रतिभा, योग्यता और क्षमता निर्माण हो एक जगह पर और सही तरीके से कमिटमेंट का प्रयोग हो रहा हो तब उस जगह पर उत्पादकता अपने आप बढ़ जाती है। किसी संगठन की उत्पादकता बढ़ाने के लिए व्यक्ति और मशीन दोनों की ही जरूरत होती है परंतु मशीन तभी कार्य करती है जब उनका संचालन अच्छी तरह किया जाए। यह व्यक्ति की क्षमता, काबिलियत और निपुणता पर निर्भर है, जो उन मशीनों को चलाने का कार्य करते है। अतः किसी संगठन को उत्पादकता बढ़ाने के लिए मानव संसाधन एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो कि मशीनों के माध्यम से हासिल नहीं किया जा सकता है। आज के समय में लोग ज्यादा से ज्यादा मशीनों एवं तकनीक पर निर्भर हो रहे हैं जिससे कि वह अपनी क्षमता एवं अपने ज्ञान का कम-से-कम उपयोग करते हैं। इसकी वजह से चाहे वह कोई संस्थान या संगठन, परिवार समाज हो या बच्चों का विकास हो कुटुंब हो, लोग एच. आर. फैक्टर पर कम और 'मीन्स' पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। इन कारणों में फिर हमारी शारीरिक एवं मानसिक सेहत अत्यधिक प्रभावित हो रही है और लगातार कमज़ोर हो रही है जिससे कि लोगों में मूड स्विंग्स, चिड़चिड़ापन, गुस्सा, हताशा, कमजोर आत्मविश्वास, खराब आचरण व व्यवहार की समस्याएँ बढ़ रही है। अतः यह कहा जा सकता है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए मशीन कंवल एक साधन है जबकि व्यक्ति की क्षमता, गुण, काबिलियत, सृजनात्मकता और प्रतिबद्धता प्राथमिक चीज है। किसी भी व्यक्ति में यह गुण उसके विचारों से आते हैं और उन्हीं से प्रभावित होते हैं क्योंकि सृजनात्मकता प्रतिवद्धता और योग्यता कोई फिजिकल फेनोमिना नहीं है। यह सारे हमारे आंतरिक गुण हैं जोकि हमारी आत्मा एवं विचार के प्रवाह पर निर्भर है। यह एक सोच है, चिंतन है जिसे किसी मशीन में नहीं बनाया जा सकता। अतः किसी व्यक्ति के साधारण से विलक्षण बनने में हमारे विचार और गुण महत्वपूर्ण हैं, जो कि हमारे अंतर्मन व आत्मा से प्रभावित और विकसित होते हैं। यहाँ से ही आध्यात्मिकता शुरु हो जाती है। ज्यादातर लोग आध्यात्मिकता को धार्मिक होना समझते है। पिछले लगभग चौदह सौ सालों से हम लोगों ने आध्यात्मिकता की व्याख्या या विवेचना बहुत गलत ढंग से की है। जब किसी व्यक्ति से यह पूछा जाता कि आप आध्यात्मिक हैं या आपको इसमें रुचि है तब वह इसे किसी जंगल या गुफा में जाकर ध्यान लगाना या किसी जगह पूजा-पाठ करना या संक्षेप में रीति-रिवाजी को निभाना समझते हैं।
सामान्यतया भक्ति या ईश्वर-विषयक रीतियों को अध्यात्म कहा जाता है और पूजा-पाठ करने वालों को ‘अध्यात्मिक’ जबकि यह बहुत बड़ी मिथ्या है। सही अर्थों में आध्यात्मिकता और कुछ नहीं बल्कि सही तरीके से अंदरूनी विकास करते हुए खुशी शांति एवं संतुष्टि प्राप्त करता है। इस आध्यात्मिकता को कोई भी अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल कर, सही तरीके से अभ्यास कर सकता है जिसका किसी भी मायने में रीति-रिवाजों से कोई लेना-देना नहीं है।
आध्यात्मिकता एक विज्ञान है जिसके दो तत्व है- अणु व आत्मना यह कहा गया है कि यत् पिण्डे तत् ब्रह्मांडे, यत् ब्रह्मांडे तत् पिण्डे अर्थात् जैसा हमारा ब्रह्मांड है, वैसा मैं हूँ और जैसा मैं हूँ जैसा ब्रह्माह है। जो पंचभूत की प्रतिक्रिया ब्रह्मांड में होती है वहीं मेरे अंदर होती है और ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया ब्रह्मांड में होती है। अतः मैं (व्यक्ति) उन्नति कर सकता हूँ। यहाँ यह दर्शाता है कि किसी भी व्यक्ति के जन्म के समय उसकी तकदीर उस तैयारी तक पहुँची थी क्योंकि ईश्वर ने उसको तकदीर लिखने के बाद उस कलम को तोड़ा नहीं था। उन्होंने एक आत्मा का सुमन हर व्यक्ति में करके उसे इस संसार में भेज दिया और उस आत्मा को रचनात्मक बनाने का भरपूर समय दिया। साथ ही साथ ईश्वर ने क्षमता निर्माण करने के भी भरपूर मौके दिए और इसे पूरे लगन एवं प्रतिबद्धता से पूरा करने एवं निभाने का समय दिया। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हर व्यक्ति अपने इस जीवन में आगे यह सकता है और विकास कर सकता है। इसके लिए आध्यात्मिकता की भाषा में व्यक्ति को अपने चेतना के स्तर को ऊपर जाना होगा और अपने अंतर्मन को मजबूत बनाना होगा। इस प्रक्रिया को ज्यादातर लोग शिक्षा से जोड़ते हैं, जो कि ज्ञान अर्जित करने का एक साधन है। इस संबंध में यहाँ यह सवाल उठता है कि आखिर इस शिक्षा का आधार क्या है? जिससे कि व्यक्ति अपने सांसारिक एवं सामाजिक जागरुकता के वाह्य ज्ञान के साथ अंतर्मन को भी जागृत कर सकें ऐसा देखा गया है कि जो निरक्षर होते हुए भी संत कबीर, रहीम, सूरदास क्षण जान हुए। कुछ लोग शिक्षा को बुद्धिमत्ता (IQ) या दिमाग से भी जोड़ते है तो कहाँ पर लोग इसे पाठ्यक्रम व शिक्षक से यही कारण है कि लोग केवल पढ़े-लिखे होने को ही ज्ञानी समझते हैं जबकि यह बहुत बड़ी अवधारणा है। ज्ञानी होने का आधार हमारा दिमाग नहीं हमारा 'मन' है। हमारा दिमाग केवल हमारी बुद्धिमत्ता का सापक है जबकि हमारे आंतरिक विकास एवं हमारे विचारों के लिए हमारा मन सहायक होता है। यह साबित करता है कि बुद्धिमत्ता के अलावा भी कुछ ऐसा है जो लोगों को विलक्षण बनाता है और साथ ही साथ उत्पादकता भी बढ़ती है। यहाँ परवरिश एवं teaching minor component है जो कि व्यक्ति को विकास मार्ग पर बढ़ने में सिर्फ मदद करती है। सही मायनों में व्यक्ति का असली विकास उसके अपने मन को मजबूती और उसके मनोबल से होता है।
व्यक्ति का मन असल में विचार-प्रवाह है freet आकलन नहीं किया जा सकता और न ही उसकी स्थिति का पता लगाया जा सकता है। हमारे विचार हमारी ज्ञानेद्रियों के द्वारा व्यक्त होते हैं। उदाहरण के लिए हमारी आँखें हमारा चेहरा आदि अगर हमारे जीवन के विकास का आधार हमारा मन है तब यह अत्यंत जरूरी है कि इसे सही तरीके से साधा जाए और मजबूत किया जाए। जब कोई व्यक्ति अपने मन को सही ढंग से संचालित कर पाता है तब वह स्वयं के बारे में भी भली-भांति परिचित होता है और उसका यही गुण उसे दूसरों को समझने में भी उत्कृष्ट बनाता है। जब कोई व्यक्ति यह अच्छी तरह समझ सकता है कि दूसरा किस मानसिक स्थिति से गुजर रहा है, उसके विचार क्या है, वह किस तरह की परेशानियों को झेल रहा है। तब यह अपने व्यवहार, रवैये एवं आचरण को अच्छी तरह प्रदर्शित कर सकता है और लोगों से भली-भांति जुड़ सकता है। इससे उस व्यक्ति को उत्पादकता उस समय में खुद-ब-खुद बढ़ जाती है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में हम नियमित रूप से अपनी बुद्धिमत्ता, भावुकता या आध्यात्मिकता का परीक्षण नहीं कर सकते और न ही हम यह ज्ञात कर सकते हैं कि हमारे दिमाग पर कितना बोझ है? यह केवल हमारे गुण या फिर हमारे आचरण, हमारे चलने-फिरने के ढंग, हमारे चेहरे के हाव-भाव आदि से समझा जा सकता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो दोहरा आचरण या व्यक्तित्व प्रदर्शित करते हैं। जैसे वह व्यक्ति अपने ऑफिस में लोगों को प्यार से और आराम से बोलता है, कभी ज्यादा गुस्सा व नाराज नहीं होता है, लोगों की बात धैर्यपूर्वक सुनता है वही व्यक्ति घर पर पहुँचते ही छोटी-छोटी बातों पर नाराज होने लगता है, बच्चों की या किसी की बात पर ध्यान नहीं देता, नौकर आदि को हमेशा डांटता है। यह उस व्यक्ति के व्यक्तित्व का विरोधाभास प्रकट करता है जिसका मतलब है कि उस व्यक्ति के मन और शरीर में कोई सामंजस्य नहीं है और उसका मन मजबूत नहीं है। ऐसे व्यक्ति अपनी जिंदगी में कभी भी उत्कृष्ट विलक्षण नहीं हो सकते हैं और हमेशा अपनी ज़िंदगी भाग्य के भरोसे चलाते हैं। ऐसे में उत्पादकता उनके जीवन का हिस्सा कभी नहीं होती।
साधारण से विलक्षण बनने के लिए व्यक्ति में धैर्य का होना बहुत आवश्यक है। धैर्यवान होने का मतलब किसी प्रणाली या व्यक्ति या चेतना को नियंत्रित करना नहीं बल्कि व्यक्ति का मार्ग दर्शन करते हुए उसे उसके गंतव्य स्थान पर पहुंचाना है। इस तरह से आध्यात्मिकता का मार्ग यह नहीं कहता है, कि आप दूसरों को नियंत्रित करिए या खुद का यह तो अपनी उर्जा को ढंग से क्रमवद्ध करते हुए कास्मिक ऊर्जा के अधिकतम इस्तेमाल करने का साधन है। यही सवाल उठता है कि हम आध्यात्मिकता का समावेश अपने जीवन में कैसे करें और उसके लिए क्या सही विधि व प्रणाली है जिससे हम अपना व्यक्तित्व संवार कर प्रभावशाली बन सकें और उत्पादकता बढ़ा सकें। इसके लिए महत्वपूर्ण है हमारे मन और शरीर में सामंजस्य क्योंकि हमारा जीवन इन दोनों के उचित संतुलन से चलता है। असाधारण व्यक्ति वह है जिसके शरीर व मन के बीच अच्छा सामंजस्य है। जब भी इसमें से कोई भी हिस्सा कमजोर पड़ता है या हमारे मन और शरीर के बीच तालमेल की कमी होती है तब हमारे शरीर में कई तरह के रोग होने लगते है जैसे लकवा होना, पार्किंसंस उच्च रक्तचाप आदि। हमारे शरीर और मन के बीच सामंजस्य बनाए रखने के लिए शारीरिक मजबूती के साथ मानसिक व्यायाम करना अत्यंत आवश्यक है। कारण यह है कि आज के जीवन में हमारे चारों ओर कई तरह के प्रदूषण है, हमारे खान-पान, दिनचर्या और आदतें बदल चुकी है और हमारा ज्यादातर जीवन दौड़-भाग करते हुए व्यतीत होता है। इसकी वजह से हमारा जोवन जटिल हो रहा है और हमारे जीवन में सादगी एवं सत्यता समाप्त हो गई है। हमारे व्यक्तित्व में विरोधाभास बढ़ रहा है। यह सारी जटिलताएँ और इस तरह के विचार प्रवाह हमारे मन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहे हैं। इन दुष्प्रभावों की वजह से हम जो हैं, जिस स्थिति में हैं, उससे ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं जिससे हमारी उत्पादकता लगातार कम होती जा रही है।
हमारा संपूर्ण शरीर पंचधातुओं का मिश्रण है यह पंचधातु है- मज्जा रक्त, मांस, अस्थि और चिता इनमें से कोई भी शरीर में कम नहीं होने चाहिए। हमें हमेशा आपने शरीर का पूरी तरह ख्याल रखना चाहिए और उसके लिए प्रयास करते रहना चाहिए। मन को मजबूत करने का प्रमुख जरिया है मौन रखना एवं सत्संग करना। सत्संग करना बहुत कठिन कार्य नहीं है जबकि मौन रखना एक तरह की तपस्या है जो कठिन अभ्यास से ही आती है। मौन से हम अपने मन को शुद्ध करके मजबूत करते हैं जो कुछ चरणों में सम्पन्न होती है। मन को शुद्ध करने की प्रक्रिया में हम धारणा, ध्यान और फिर समाधि की तरफ बढ़ते हैं। यहाँ मौन रखने का मतलब किसी भी जगह सिर्फ चुप रहने से नहीं है। उदाहरण के लिए अगर व्यक्ति चुप-चाप बैठकर किसी का भाषण सुन रहा हो या टीवी देख रहा हो या कोई संगोष्ठी में भाग ले रहा हो तब यह मौन रखना नहीं दर्शाता है। असल में मौन रखने का मतलब है, “जहाँ मैं मेरे साथ बैठा हूँ वक्त गुजारता हूँ, अपने आप को समझता हूँ।” इस स्थिति में अगर कोई व्यक्ति दस मिनट भी मौन बैठ जाए तब यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है और यह व्यक्ति के मजबूत मन को दर्शाता है।
ऐसा मौन, जहाँ हम अपने से अपना परिचय करते हैं, अपने 'स्वयं' से मिलते हैं और अपनी कमजोरियों आदि का आकलन करते हैं; यह हमारे मन को और हमारे शरीर को प्रभावशील बनाता है।
इस तरह का सक्रिय मौन हमारे मस्तिष्क की तंत्र कोशिकाओं की क्षमता बढ़ाकर हमारे मन की मजबूती बढ़ाता है जिससे व्यक्ति के शरीर में ऊर्जा का विकास होता है और उसकी जीवन आयु बढ़ती है। इससे व्यक्ति के शरीर में आनंद की उत्पत्ति होती है। जो शरीर के अंदर कड़वे और विषैले पदार्थों को बाहर निकाल फेंकने में मदद करता है। इस सक्रिय मौन की प्रक्रिया से हमारा ध्यान अच्छी तरह से केंद्रित होता है जिससे हमारी स्मरण शक्ति और एकाग्रता बढ़ती है। यह हमारे विचारों को अच्छे से अभिव्यक्त करने में भी मदद करता है और हमारे व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाता है। यहाँ कारण है कि जब कोई हमसे प्रेरणादायक बात करता है या हमे प्रोत्साहित करता है या हमसे कहता है कि सब कुछ ठीक है, कुछ बुरा नहीं होगा तब उस समय उस व्यक्ति के अंदर का आनंद उसका आत्मविश्वास बढ़ाकर उसे productive बनाता है।
इस तरीके से हमारा 'आत्मन'- उत्पादकता का आधार है। आत्मनमा का आधार है आध्यात्मिकता और आध्यात्मिकता से प्रभावित होते हैं- हमारे मन एवं हमारे विचार प्रवाह और फिर अंततः हमारे विचार प्रवाह हमारे इस स्थूल शरीर को प्रभावित करते हैं। इसीलिए अक्सर यह देखा गया है कि लोग चमत्कारिक ढंग से कैंसर आदि गंभीर बीमारियों से लड़कर बच गए जोकि एक महज संयोग नहीं बल्कि यह उन लोगों का संकल्प और उसके शरीर के बीच उचित संतुलन का नतीजा है।
अत: अध्यात्म कोई पढ़ाई नहीं धार्मिकता नहीं बल्कि एक जीवनचर्या है जिसके उचित पालन व संचालन से हम अपनी रचनात्मकता, क्षमता एवं जीवन के सभी पहलुओं के प्रति प्रतिवद्धता बढ़ाकर साधारण से विलक्षण बन सकते हैं और उत्पादकता बढ़ा सकते हैं।
- प्रो. पवन सिन्हा 'गुरुजी'
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