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  • साधारण से असाधारण बनने का विज्ञान

    “हमारे मन में अनेक प्रशन कौंधते हैं कि क्या हम् एक साधारण व्यक्तित्व से असाधारण व्यक्तित्व बन सकते हैं? क्या हमारे बच्चे, जिनमें हमें कुछ खास दिख नहीं रहा, क्या हम उन्हें साधारण बच्चे से विलक्षण बच्चा या मेधावी बच्चा बना सकते हैं?” हम अपने आस-पास ऐसे कईं व्यक्ति देखते हैं जो बहुत विलक्षण होते हैं। उन्हें देखकर हमारे मन में अनेक प्रश्न कौंधते हैं कि क्या हम एक साधारण व्यक्तित्व से असाधारण व्यक्तित्व बन सकते हैं? क्या हमारे बच्चे, जिनमें हमें कुछ खास दिख नहीं रहा, क्या हम उन्हें साधारण बच्चे से विलक्षण बच्चा या मेधावी बच्चा बना सकते हैं? क्या हम ऊर्जाहीन व्यक्तित्व से ऊर्जावान व्यक्तित्व बन सकते हैं? एक व्यक्ति जो डरा हुआ रहता है, सहमा हुआ रहता है, बॉस की डांट खाता रहता है, क्या वह ऐसे व्यक्तित्व में परिवर्तित हो सकता है जो कभी डरे नहीं, जो कभी खौफ़ न खाए, जिस पर बॉस चिड़चिडाए नहीं। क्या हम खुशमिजाज व्यक्तित्व के रूप में परिवर्तित हो सकते हैं जो अपनी हँसी से वातावरण को गुंजायमान कर दे? जो हर समय झगड़ने से बचते हों, जिनसे बच्चे प्यार करते हों? यह हमारा दुर्भाग्य है कि बदलते ज़माने के साथ प्रेम तेज़ी से समाप्त हुआ है। न केवल हमारे परिवार में यह प्रेम कम हुआ है बल्कि हमारे पड़ोसियों के साथ भी प्रेम में कमी आई है। आलोचनाओं का जो दौर शुरू होता है, वह खत्म ही नहीं होता। इस विषय पर गहराई से सोचने और लगातार बात करने की ज़रूरत है। सबसे पहली बात यह है कि क्या Destiny या नियति या प्रारब्ध अंतिम है? क्या नियति को बदला जा सकता है? क्या Destiny के पीछे कोई परा नियति या Meta-Destiny है? मेरा उत्तर है- हाँ, Destiny या नियति को बदला जा सकता है। में जिस एस्ट्रोलॉजी की प्रैक्टिस करता हूँ वह नियति को अंतिम नहीं मानती हैं। मानवीय सोच कुछ इस तरह की है जो नियति को अंतिम मानती है। लेकिन अगर हम बहुत गहराई से चीजों का अवलोकन करें या फिर हम खुद को ही गहराई से परखने की कोशिश करें तो हमें ज्ञात होगा कि हम हरदम भाग्य या नियति या प्रारब्ध से लड़ते नजर आते हैं। यदि हमारा अवचेतन मस्तिष्क किसी चीज की अंतिम सत्यता को स्वीकार कर लेगा तो हम उससे कभी नहीं लड़ेंगे। हम नियति या प्रारब्ध से इसलिए लड़ते हैं ताकि हमारी चेतना का स्तर ऊँचा हो, ईश्वर की ऐसी कृपा हमें मिले और हम अपनी नियति को बदल सकें। अगर हिंदुत्व विज्ञान की गहराई में जाएँ तो कई सिद्धांत सामने आते हैं। एक सिद्धांत है- पुनर्जन्म का दूसरा सिद्धांत है- कर्म का और तीसरा सिद्धांत है- भाग्य का । अगर भाग्य या नियति को अंतिम मान लिया जाता तो पुनर्जन्म का सिद्धांत कभी न लिया जाता। दूसरा प्रश्न यह उठता है कि अगर मान भी लिया जाए कि भाग्य अंतिम नहीं है लेकिन फिर भी भाग्य कुछ तो है। कुछ लोगों का मानना है कि भाग्य या नियति कुछ नहीं है। मैं तो जो चाहूँगा वह मुझे प्राप्त हो जाएगा। लेकिन आज तक मुझे कोई व्यक्ति नहीं दिखा, शायद ही कोई ऐसा भाग्यशाली हो! इस संबंध में हमें अनेक विचारधाराएँ मिलती है। एक व्यक्ति ने कहा, "भाग्य कुछ नहीं है। व्यक्ति जो सोचता है, उससे उसका चेतना का स्तर मजबूत होता है या जितना उसका सोचने का स्तर मजबूत होगा, उतनी ही जल्दी वह चीजों को प्राप्त कर लेगा।” लेकिन वास्तव में ऐसा होता है? आइए इसे एक उदाहरण से हम समझते हैं – दौड़ में सभी के लिए 3, 2, 1 बोला जाता है। सभी पूरे जोश के साथ दौड़ना शुरू करते हैं। लेकिन मंजिल पर वही पहुँचते हैं जिनका भाग्य अच्छा होता है। कमी दौड़ने में नहीं है। संभव है कि किसी के दिमाग में कुछ ऐसी तकनीक आई या किसी का मनोबल ऐन वक्त पर कमजोर पड़ गया हो। इसलिए सभी लोग मंजिल पर नहीं पहुँचे। इसलिए जो केवल कर्म का दर्शन है वह सही नहीं है। वैज्ञानिक तौर से भी यह मान्य नहीं है। दूसरा पहलू होता है 'भाग्य'। जो राम जी चाहेंगे वह होगा, जो भाग्य मे होंगा वह होगा। राम जी को इतनी फुर्सत नहीं है कि वे ये सुनिश्चत करें कि अरबों-खरबों लोगों को क्या करना है। उन्होंने हमें एक बेसिक हमारा ‘ब्रेन’ दिया है जिसे हम ‘वराह अवतार’ कहते हैं। यदि हम भी भारतीय शास्त्रों को वैज्ञानिक ढंग से पढ़ने का प्रयास करेंगे तो हमें उनकी गहराई नज़र आएगी। पूरा शरीर विज्ञान अपने आप में एक बहुत बड़ा उदाहरण है। "व्यक्ति जो सोचता है, उससे उसका चेतना का स्तर मज़बूत होता है या जितना उसका सोचने का स्तर मज़बूत होगा, उतनी ही जल्दी वह चीज़ों को प्राप्त कर लेगा|" लेकिन वास्तव में ऐसा होता है ? आइए उदाहरण से हम समझते हैं- वराह अवतार के द्वारा हममें सोचने और समझने की शक्ति का जन्म हुआ और यदि आप इस ग्रंथि को एनाटॉमी में देखें तो यह बिल्कुल जंगली सूअर की तरह के आकार का दिखता है जिसे संस्कृत में 'वराह' कहते हैं। यह विष्णु जी का एक अवतार माना गया। इसी जगह पर थैलेमस, हाइपोथेलेमस आया और इन्हीं के संवेग के असर से जन्म हुआ विवेक' का। विवेक का इस्तेमाल करते हुए हम अपने भाग्य में परिवर्तन कर सकते हैं। तो इस तरह भाग्य सौ प्रतिशत अंतिम नहीं होता। अब यह प्रशन उठता है कि परिवर्तन कर सकते है तो कितना ? यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है और इसमे व्यक्ति प्रति व्यक्ति भिन्नता होती है। करीब 500 लोगों पर एक प्रयोग हुआ जिसमे सभी को समान प्रशिक्षण दिया गया। इसमें सभी को समान वातावरण में रखा गया। एक विशेष बात यह है कि ये 500 लोग समान भाग्य वाले थे। इस प्रयोग में सबके परिणाम अलग-अलग आए। उनमें से लगभग 100 लोगों के परिणाम बहुत अच्छे आए और उन 100 लोगों में से भी 10 लोग exemplary थे । जो लोग पढ़ाई छोड़ चुके थे , कोई मुशी तो कोई एकाउंट्स में था । उनमें भी उन्नति हुई और वे अफसर तक बन गए । यह एक बड़ी बात है । ये वे लोग थे जो अपनी वर्तमान व्यवसाय से समझौता कर चुके थे । लेकिन जब उनके अविश्वास को विश्वास दिया गया तो सकारात्मक नतीजे सामने आए । मैं इन्हें विलक्षण नतीजे मानूँगा। ये नतीजे इस ओर संकेत करते हैं कि हाँ, साधारण इंसान भी असाधारण कार्य कर सकते हैं। अब बात आती है नियति को कितना बदला जा सकता है? नियति को 50 प्रतिशत बदला जा सकता है। हम अपने थैलेमस हाइपोथैलेमस और अमेगडेला में लगभग 50 प्रतिशत बदलाव ला सकते हैं। हम अपने बाएँ और दाएँ हेमीस्फेयर में सर्वोत्तम संतुलन बना सकते है और यह नियति में बदलाव लाने के लिए काफी है। आपके अंदर महत्वाकांक्षा का एक छोटा-सा कोड़ा भी आपको किसी भी ऊँचाई तक ले जाने के लिए पर्याप्त है। लेकिन एक बात ज़रूर है कि यह उन लोगों पर बिल्कुल काम नहीं करेगा जो आलसी है, जिनमें कुछ करने की तमन्ना ही नहीं है। वही कुछ माता-पिता ऐसे भी है जो यह जानते है कि हमारे अंदर कुछ आनुवांशिक समस्याएँ है, उसके बावजूद वे अपने बच्चो को सफलता की चरम सीमा तक ले जाना चाहते हैं। हमारे शास्त्रों में ऐसे-ऐसे सिद्धांत लिखे हुए है जिनका प्रयोग करने के उपरांत बच्चों में वे आनुवांशिक समस्याएं समाप्त हो जाती थीं। यह साधारण बात नहीं है। मैंने न जाने कितने प्रयोग किए हैं। जब मै इन सिद्धांतों को कहता था तो लोग नहीं मानते थे। “यदि हम अपनी बुद्धि का स्तर बढ़ाना चाहते हैं, अपनी बुद्धि और चेतना को बढ़ाना चाहते हैं तो योग करना सबसे महत्वपूर्ण है। जीवन में तरक्की करने के लिए दो-तीन चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं जो हमें आत्मविश्वास देती हैं। आत्मविश्वास से…” पिछले साल अप्रैल में एक न्यूज़पेपर "The Columbia' में वही लिखा मिला। हमारे देश के लोगों की एक कमी है कि उन्हें हर चीज़ के लिए विदेश का ठप्पा चाहिए होता है। वही हुआ और मैं बहुत खुश था "The Columbia की रिपोर्ट में लिखा था कि हमारे जीनोम में लगभग 50 प्रतिशत खाली जगह होती है। उस खाली जगह पर ग्रहों (planetary) या अलौकिक शक्ति (extra terrestrial power) का प्रभाव होता है। 8000 साल से हम भी इस बात को कहते आ रहे हैं कि मानव व्यक्तित्व या मानव मस्तिष्क पर अलौकिक शक्ति का प्रभाव पड़ता है। इस पर 12 साल के शोध के बाद state university में शोध हुआ और यही परिणाम सामने आए। यदि इन सिद्धांतों को हम प्रयोग में लाते तो सोचिए हमने बहुत ही विलक्षण संतानों को जन्म दिया होता। बहुत से माता-पिता ये सोचते हैं कि हम खूबसूरत नहीं हैं लेकिन हमारा बच्चा खूबसूरत हो। यह संभव है और ऐसे न जाने कितने प्रयोग हुए हैं। जो माता-पिता विलक्षण संतान को जन्म नहीं दे सकते उन्हें संतान को जन्म नहीं देना चाहिए। देशहित में यह बात बिल्कुल ठीक है। ऐसी संतान जो खुद अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती, ऐसी संतान जिसमें बहुत ज़्यादा आक्रामकता है- ऐसी संतान को जन्म देने से राष्ट्र तरक्की नहीं कर सकता। भारतीय मनीषियों ने इसका उपाय खोज निकाला। इसका बहुत बड़ा श्रेय जाता है- ऋषि सुश्रुत को। ऋषि सुश्रुत ने जब आयुर्वेद की रचना की जिसमें उन्होंने आठ खंड किए और सबसे बड़े खंड का नाम उन्होंने भूत विद्या रखा। 'भूत' का वास्तविक अर्थ होता है- psychology । भूत विद्या का अर्थ है- साइकेट्री । यह आठवाँ खंड हैं- आयुर्वेद का। इसमें बहुत सारे सिद्धांतों का उल्लेख है जिससे हम और हमारी आने वाली संतान हमसे ज़्यादा प्रगतिशील हो सकती है। उसे उसके वर्तमान से ज़्यादा बेहतर बनाया जा सकता है। इस प्रकार नियति को लगभग 50 प्रतिशत तक बदला जा सकता है। अब प्रश्न होता है कैसे ? मन और मस्तिष्क दोनों अलग-अलग चीजें हैं। यह समझना बहुत ज़रूरी है क्योंकि उन्नति मन से होती है, मस्तिष्क से नहीं। आपने सुना भी होगा कि आइंस्टीन की मृत्यु के बाद उनके ब्रेन को संग्रहालय में रखा गया था। उनके ब्रेन पर बड़ा शोध हुआ कि आखिर क्या था इस शख्स के अंदर। आइंस्टीन का मस्तिष्क किसी सामान्य मस्तिष्क के बराबर था और वजन भी बराबर था। लेकिन आइंस्टीन का मन जो कि सामान्य मन के मुकाबले बहुत ही सशक्त था और उसे पढ़ा जा सकता था। आइंस्टीन के ब्रेन के 10 प्रतिशत न्यूरॉन्स का इस्तेमाल किया हुआ था। ब्रेन में 1000 मिलियन न्यूरॉन होते हैं और इन्हीं के इस्तेमाल से व्यक्ति विलक्षण बनता है। योग सूत्र और पतंजलि सूत्र में भी इसका वर्णन है। पतंजलि सूत्र भी मानकर चलें तो लगभग 3500 वर्ष पुरानी बात है। थर्ड बी. सी. में तो यह तथ्य लोगों के सामने था। हमारे मस्तिष्क (Skul) के अंदर जो न्यूरॉन की क्रियाएँ होती हैं उन्हें जितना इस्तेमाल करेंगे उतना ही आप विलक्षण होते चले जाएँगे। दरअसल दो तरीके के लोग होते हैं। एक वे लोग हैं जिन्होंने फाइल पर नज़र मारी और उन्हें पता चल गया कि गलती कहाँ है? और दूसरे वे लोग हैं जो कि फाइल को पूरा पढ़कर भी गलती नहीं पकड़ पाते। तो अंतर कहाँ है? अंतर निष्ठा में नहीं है, अंतर तो ब्रेन में है और मन में है। पतंजलि योग सूत्र के हिसाब से मन यानि चेतना या विचार और मस्तिष्क यानि हमारा ‘सेरिब्रम’ है। हमें हमेशा अपने बच्चों का न्यूरॉन का स्तर उठाते रहना चाहिए। यह स्तर जितना मज़बूत होगा उतना बच्चे काबिल बनते चले जाएँगे। यदि हम अपनी बुद्धि का स्तर बढ़ाना चाहते हैं अपनी बुद्धि और चेतना को बढ़ाना चाहते हैं तो योग करना सबसे महत्वपूर्ण है। जीवन में तरक्की करने के लिए दो-तीन चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं जो हमें आत्मविश्वास देती हैं। आत्मविश्वास से तरक्की कभी नहीं होती। कुछ गुण होते हैं जिनसे आत्मविश्वास आता है और उसके बाद तरक्की शुरू होती है। योग हमारी बुद्धि के दायरे को बढ़ाता है जिससे हम सही वक्त पर सही निर्णय ले पाते हैं, वक्त की ज़रूरत के अनुसार काम कर पाते हैं। यह बात समझ लेना भी ज़रूरी है कि बुद्धि ज्ञान से अलग होती है। ज्ञान बुद्धि का एक महत्त्वपूर्ण अंग हो सकता है। आपको ऐसे बहुत से व्यक्ति मिलेंगे जो पढ़े-लिखे तो नहीं हैं लेकिन वे बहुत बुद्धिमान होंगे। वास्तव में बुद्धि जितना ज़्यादा इस्तेमाल होगी, बुद्धि का स्तर भी उतना ज़्यादा होगा। एक और रोचक तथ्य यह है कि केवल 10 मिनट के ध्यान से 48 प्रतिशत तक मस्तिष्क की कार्य क्षमता में इजाफा होता है। इस तरह योग, ध्यान का निरंतर प्रयोग करने से हम अपनी मानसिक शक्तियों को बढ़ा सकते हैं।

  • अध्यात्म और युवा

    स्वामी विवेकानंद युवाओं के गुरु थे और रहेंगे युवाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण उनके समकालीन विचारकों से बिल्कुल भिन्न था और उसमें अध्यात्म और विज्ञान का अनूठा मिश्रण था। इसीलिए वो आज भी न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व में प्रासंगिक है। पूरा विश्व उनका जन्मदिन यानि 12 जनवरी विश्व युवा दिवस के रूप में मनाता है। परंतु दुख की बात है कि हम इस दिन केवल उनकी याद का उत्सव मनाते हैं। उनके अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम, विकास की दिशा आदि सिद्धांत कहीं भी दिखाई नहीं देते। उनके द्वारा युवाओं के लिए देखा गया सपना आज धूमिल होता जा रहा है। हाल युवा वर्ग के भी ठीक नहीं है। सिर्फ धन शक्ति को ही विकास और सफलता का पर्याय समझने वाली युवाशक्ति पूरी तरह दिशाहीन रास्ते पर बढ़ती जा रही है पर इसके लिए युवाओं को दोष नहीं दिया जा सकता। राष्ट्र हित में इसके कारण तलाशने होंगे। कुछ तथ्यों पर निगाह डालें- इस देश की कुल जनसंख्या का 70 प्रतिशत युवा (13 से 35 वर्ष की उम्र) है। देश में होने वाली छोटी-बड़ी आपराधिक घटनाओं में लिप्त लोगों में लगभग 75 प्रतिशत युवा होते हैं। लगभग हर पांचवा युवा अनिश्चित भविष्य से उपजी असुरक्षा से गंभीर रूप से चिंतित और परेशान हैं। युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य कमजोर होता जा रहा है। लालच, क्रोध, हिंसा, नशा, आत्महत्या आदि में बढ़ोत्तरी इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। लगभग हर तीसरा शहरी युवा अस्वस्थ है, विशेषकर पेट, श्वास, सर या कमजोर प्रतिरोधक क्षमता की परेशानी से ग्रसित है। कुछ गंभीर रोग जो सामान्यतः प्रौढ़ों अथवा बुजुर्गों में होते ये अब युवाओं में भी बढ़ते जा रहे हैं। जैसे - मानसिक समस्याएँ. बी.पी. नेत्र रोग, हड्डियों के रोग आदि । युवाओं में परिवार के प्रति प्रेम और जिम्मेदारी का अहसास कम हो रहा है। देश, धर्म व संस्कृति से जुड़ाव दिन ब दिन कम होता जा रहा है परंपराओं में रुचि कम हो रही है और पश्चिम का अंधानुकरण बढ़ता जा रहा है अधिकतर युवाओं का मन अध्ययन करने, पढ़ने,लिखने या चिंतन करने की अपेक्षा घूमने-फिरने तथा मौज-मस्ती में अधिक लगता है। छात्र आंदोलन भी कमजोर एवं दिशाहीन होते जा रहे हैं। "तुम्हारे मस्तिष्क में ठूसी और जीवन भर अनपची रह जाने वाली और त्रासदायी जानकारी का संग्रह शिक्षा नहीं है। जीवन का निर्माण करें, मनुष्य को बलवान बनाएं, उसके चरित्र का विकास करें, ऐसे पठन की आवश्यकता है।" "मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो वहीं इसका प्रयोग करो- उससे अतिशीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।" - स्वामी विवेकानंद जी इन समस्याओं के लिए जिम्मेदार कौन है? निश्चित रूप से युवा वर्ग नहीं है। इसकी प्रथम जिम्मेवारी आती है भारतीय शासन व्यवस्था और राजनैतिक दलों पर। आश्चर्य की बात है कि जिस देश की 70 प्रतिशत जनता युवा हो उस देश में (2002 से 2004 तक यानि दो वर्षों को छोड़कर) कोई राष्ट्रीय युवा नीति या कमीशन अस्तित्व में है ही नहीं। जो संगठन सरकार द्वारा बनाए भी गए हैं। उनका कार्य क्षेत्र तथा बजट इतना कम है कि वो इतने बड़े वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकते। वैसे भी इन संगठनों के एजेंडे में युवाओं के संपूर्ण व्यक्तित्व के विकास का कोई फार्मूला नहीं है। कमजोर दूर दृष्टि और लचर गवर्नेस के चलते भारत अपने ही अंदर अनेक देशों में बंट गया। अमीरों का भारत और गरीबों का भारत, शहरी भारत और छोटे हर या ग्रामीण भारत और उपेक्षित भारत जिसमें सुदूर प्रदेश और जनजातीय इलाके आते है। इस सामाजिक विभेद से उपजी कुठा का सबसे बुरा असर युवाओं पर ही पड़ा। राजनैतिक दलों के लिए युवा वर्ग केवल वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं रहे जिसके चलते छात्र आंदोलन अपनी भूमिका और दिशा से भटक गए। युवा वर्ग के भटकाव का दूसरा बड़ा कारण देश की शिक्षण व्यवस्था है जिसमें छात्र उत्पाद से अधिक कुछ नहीं रह गया है। शिक्षण संस्थानों में उपजा भौतिकवाद तथा स्कूल प्रसाशन, शिक्षकों, छात्रों व छात्रों के परिवारों के मध्य उमरे अविश्वास ने शिक्षण को दिशाहीन कर दिया जिसका सीधा असर युवाओं पर पड़ रहा है। ऐसे बुद्धिजीवी भी कम कुसूरवार नहीं है जिन्होंने युवाओं में छदम प्रगतिवाद को जागृत किया एवं उन्हें पूर्णतया भौतिकवादी बनाने का कार्य किया। इस वर्ग ने युवाओं को धर्म और विज्ञान में सामंजस्य स्थापित नहीं करने दिया। इस वर्ग ने उन्हें भारतीय समाज की कुरीतियों के विरुद्ध खड़ा करने की बजाए सभी भारतीय परंपराओं के विरुद्ध खड़ा करना चाहा जिससे उनमें चरित्र देश, समाज और परिवारों के प्रति श्रद्धा कम हो गई और उसका स्थान लिया हिंसा, लालच और उन्मुक्त वातावरण ने। प्रगतिशीलता के नाम पर इस वर्ग ने युवाओं को पाश्चात्य कुरीतियों की ओर धकेल दिया और इसे नाम दिया–विज्ञानवाद जिसमें विज्ञान तो कहीं था ही नहीं बस एक अलग किस्म का अंधानुकरण था जिसका केंद्र पश्चिमी फलसफा था। इस सोच के युवाओं में सबसे अधिक अवसाद और भटकाव फैला। पर युवाओं के भटकाव की सबसे बड़ी जिम्मेदारी आती है। परिवारों तथा परवरिश पर। विडम्बना है कि स्वयं भौतिकवाद, लालच, अति–महत्वाकांक्षा तथा कुपरंपराओं जकड़े माता--पिता अपने बच्चों से उत्तम चरित्र की अपेक्षा करते हैं जिनके घरों में स्वयं सु–चिंतन न होता हो या पढ़ाई--लिखाई का माहौल न वो बच्चों की पढ़ाई को लेकर बच्चों के सामने ही शिक्षकों से झगड़ते दिखाई पड़ते है।अपना आराम पाने और अपने समय का कुछ अन्य उपयोग करने वाले माता-पिता बच्चों की हर ज़िद की पूर्ति करने या उसे लालच देने का कार्य करते करते कब परवरिश से दूर होते जाते हैं और बच्चों के वित्तपोषक (Financer) होते जाते हैं। उन्हें स्वयं भी पता नहीं चलता। इस तरीके से पाले गए बच्चों से उनकी युवावस्था में उनसे निःस्वार्थ प्रेम की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है। ये बच्चे ही ऐसे युवा बनते हैं जिनमें असुरक्षा और भावनात्मक खालीपन होता है। अपने बुजुर्गों से दूर रहने की चाहत रखने वाले माता-पिता बच्चों के अंदर अपने लिए कम होते समर्पण भाव पर भला कैसे टिप्पणी कर सकते हैं। बच्चे और युवा सदैव समाज, परिवेश और परवरिश से सीखता है। धर्म और सुपरंपराओं से लैस युवा ही स्वयं परिवारों समाज व राष्ट्र के लिए कुछ कर सकता है। ये ही उसका आत्मविश्वास और आत्मबल बनते हैं। अध्यात्म वैज्ञानिक एवं उद्देश्यपरक शिक्षण, सुपरंपराएं अच्छी परवरिश और सुशासन ही एक मजबूत युवा और उत्तम राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। ये ही स्वामी विवेकानंद की शिक्षा है। - प्रोफ़ेसर पवन सिन्हा ‘गुरूजी’

  • The Lord who smiled through his pain

    The Shri Krishna that we know is the one who dances, sings and enjoys. We aren’t told about the Shri Krishna who sacrificed Himself for others. Understanding Lord Krishna is difficult. He was multidimensional. His life’s journey was full of challenges, but he faced them with his effervescent smile. Shri Krishna was clutched by sufferings as soon as He was born. He was born in an emergency and was surrounded by anguish soon after. He took birth in jail from the womb of Maa Devaki and was taken away to Maa Yashoda in Gokul to keep him safe. Further, when He grew up a little, enemies came after Him. Later, not only he had to save himself from the enemies, but also had to save and protect others. This was a sense of responsibility within Lord Krishna, which is one of the biggest lessons that should be learnt by all. His commitment level was extremely high and it could be seen through how he jumped into the battlefield to save others. First, He fought in Gokul against the evils sent, then when he turned 11.5 years old, he went to Mathura to fight against Kans. After this, He went to Dwarka and established it with 18,000 people, ran a federal rule there, brought changes in the political system, and sacrificed Himself for the welfare of the people. But the people didn’t value Him or His teachings. As told to Rishi Narad by Lord Krishna, the people who He settled in Dwarka, the ones for whom He provided food and facilities, the ones who he fiercely protected, the same people criticised Him. This saddened Him no end because it was easy to fight the enemy from the front, but when those people who stood nowhere in front of Shri Krishna criticised Him, those who were like Shri Krishna’s children criticised Him, those who He helped when they were in problems criticised Him, it became difficult to bear. The Lord gave them His spiritual powers, yet received criticism in return. Still, he kept on smiling. He accepted the pain; it could not disturb His balance or personality. When Shishupal came out openly and hurled hundreds of abuses towards Lord Krishna, He didn’t react because Shishupal was an outsider. Here, another factor needs to be understood; among those abuses, Shishupal did not once talk about Shri Krishna’s character. If there would have been even a bit of a flaw in Shri Krishna’s character, Shishupal wouldn’t have spared it. Yet, today, we are making fun of our gods, concocting stories about their characters, and creating fake relationships and incidents about them. The Shri Krishna that we know is the one who dances, sings and enjoys. We aren’t told about the Shri Krishna who sacrificed Himself for others. During the Mahabharata war, He had to face the arrows, and during His rule, he faced complaints and abuse from His own people. This is, again, an important lesson to learn because, for a leader, it is imperative to lead from the front. At first, a leader fights alone and then the crowd follows. Even during the war, Shri Krishna is making Arjun fight to establish Dharma. There again, He leads from the front and faces the arrows of the Kauravas’ army. In the evening, when after applying ointment on the bodies of all the soldiers, even including the enemies, Shri Krishna takes off His armour; he has deep wounds, blood clots and cuts from the arrows on His body. We forget this part of Shri Krishna’s personality. He said to Arjun, “Go and fight. I am standing behind you.” He put His own life in danger to save others and to establish righteousness and Dharma. He was a great strategist who planned things; there were no miracles in His life; He lived His life on His own terms, in His own way and on His own capabilities. However, some of us can never understand the depth of our gods and their work. Instead, we make fun of them and ridicule them. On the other hand, the West has started valuing our scriptures and our gods.

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